क्यूँ होती है लड़कियां इतनी पराई।
मेरे पैदा होते ही घर में एक ख़ामोशी सी छाई
दबे आवाज में दादी बताई, फिर से एक लक्ष्मी है आई
पिता की वो लटकी हुई ललाट और माँ का चेहरा मुरझाई
मै तो थी नन्ही सी, अनजानी सी, कुछ समझ ना पायी
जीवन की पहली किलकारी के साथ माँ की गोद में थी अपनी दुनिया बसाई।
गिरते पड़ते, नन्हे नन्हे पैरो से चलना सीखा
माँ की गोद और पिता का प्यार तो था भाई की सौगात
क्या होता है त्याग बचपन से ही गई बताई
सुन सुन के बड़ी हुई बेटियाँ तो होती है परायी
एक दिन तो दूसरे की बननी है लुगाई।
एक दिन वो भी घडी आई जब मै ब्याह कर पति के घर आई
सास ने पूछा क्या क्या है लाई, ननद ने कहा भाभी तो बड़ी है सरमाई
दहेज़ के सामानो से घर में एक रौनक सी आई
डरी सहमी सी मै उन सामानों के साथ तौलती गई पाई।
अब तो ना कोई आज़ादी थी, ना ही कोई अरमान
पहले दिन से घर में कैद और परिवार के संस्कारों के बीच दबी मै पाई
अब तो ससुराल ही मेरी दुनिया थी, जिसमें पति की सेवा और घर की नौकरानी गई थी बनाई
मै तो थी बेचारी सी, नादान सी, मेरी हर गलती पे ताना गई सुनाई
इस नादान सी जिंदगी में, कदम कदम पे मै गई सिखाई ।
एक दिन वो भी आया… जब मै जननी गई बनाई
दिल में इक उमंग सी थी उस नन्ही सी गुड़िया में अपना अक्स जो थी पायी
धीरे धीरे फिर से अपनी एक नई दुनिया थी बसाई
उस नन्ही सी गुड़िया के सहारे, जिंदगी जीने की कसमे थी खाई ।
दिल में इक कसक सी थी, की क्यों मुझे गुलामी की बेड़िया गई पहनाई
मै एक बेटी थी, बहन थी, पत्नी थी, फिर भी पैरों के नीचे गई दबाई
समाज के उन दोचेहरे दरिंदो और झूठे संस्कारो से उम्र भर लड़ती मै पाई
इक अरसा बीत गया ज़िन्दगी का, लेकिन आज तक मै ये समझ न पायी
जीवन के हर बंधन में रहकर भी क्यों होती है लड़कियां इतनी पराई।
A. M. Gautam